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कहानी

तुम्हारे हिस्से में

महावीर राजी


'साउथ सिटी' मॉल के सामने बाइक आकर रुकी तो एक पल के लिए दोनों के बदन रोमांच से गुदगुदा गए। मॉल का सम्मोहित कर देने वाला विराट प्रवेश द्वार! द्वार के दोनों ओर जटायू के विशाल डैनों की मानिंद दूर तक फैली चहारदीवारी! फ्रेस्को शैली के भित्ति चित्र! चित्रों के कंगारू गोदों में दुबके राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रील उत्पादों की नुमाइश करते बड़े बड़े आदमकद होर्डिंग्स और विंडो शो केसेस! सब कुछ इतना तिलस्मी कि आँखें बरबस फटी की फटी रह जाएँ।

मॉल के भीतरी दुनिया के विपरीत चाहरदिवारी के बाहर भी एक और दुनिया उतनी ही गुलजार थी। भीतर की हाई-फाई 'गुलिवरों' की भीड़ के बीच असहज हो उठने की बजाय बाहर रह कर तथाकथित आत्मसम्मान की पूँछ फटकारते, मॉल की भव्यता को कड़क कहवे की तरह चुस्की दर चुस्की आँखों की राह दिल में उतारते 'लिलिपुटी' दर्शकों का हुजूम! भेलपुड़ी, पुचका, आइसक्रीम और कई कई तरह के ग्लोबल फास्ट फूडों के ठेलों की ठेलमठेल! इनके इर्द गिर्द हमिंग बर्ड की तरह चीं चीं करते लोगों की आपाधापी! इन सब के टुकडे टुकड़े कोलाजों की दरारों में पूरी कलात्मकता के साथ रफू लगाता बसों, कारों व टेंपुओं के कॉकटेली शोर धमाकेदार पार्श्व संगीत!

भीतर बड़ा सा बृत्ताकार आँगन! आँगन के चारों ओर भव्यता की सारी सीमाओं को लाँघते बड़े बड़े शोरूम! बीच में थोड़ी थोड़ी दूर खड़े आगतों को मासूमियत के संग हथेलियों पर बैठा कर ऊपर की मनचाही मंजिलों तक ले जाने कक तत्पर दैत्याकार एस्कलेटर!

'कैसा लग रहा है जेन?' नाम तो संजना था, पर हर्ष उसे प्यार से जेन पुकारता। शादी के पहले संजना मायके में थी 'संजू' थी। शादी के बाद पहली रात उसे बाँहों में भरते हुए हर्ष हिनहिनाया था - संजू कैसा तो देहाती देहाती सा लगता है। ग्लोबलाइजेशन के इस युग में सब कुछ ग्लोबल न होना चाहिए। नाम भी। अतः आज से मैं तुम्हें जेन कहूँगा... माय जेन फोंडा...!

'वंडरफुल....!' संजना के होंठों की लिपस्टिक में गर्वीली ठनक घुल गई। चेहरा ओस में नहाए गुलाब सा खिल गया - ' लगता है जैसे पेरिस पूरे शबाब के संग उतर आया हो यहाँ।'

'लेकिन एक बात जान लो। यहाँ हर चीज की कीमत बाहर के शोरूमों से दुगुनी तिगुनी मिलेगी।' हर्ष चहका।

संजना खिलखिलाकर हँस पड़ी तो लगा जैसे मंदिर में झूलती छोटी छोटी घंटियाँ खनखना उठी हों। मुँह की फाँक के भीतर करीने से जड़े मोतियों के दाने 'पिपिंग टॉम' से चिलक उठे। शरारत से आँखें नचाती बोली - 'कुछ हद तक बेशक सही है तुम्हारी बात। पर जनाब, इस तरह के मॉल में खरीदारी का रोमांच ही कुछ और होता है। इस रोमांच को हासिल करने के लिए थोडा त्याग भी करना पड़ जाय तो... तो सौदा बुरा नहीं।'

'लगता है, इस जादुई चिराग का कचूमर निकाल देने का इरादा है आज।' हर्ष ने जेब से आयताकार क्रेडिट कार्ड निकाल कर संजना के आगे लहराते हुए कहा तो संजना फिर से खिलखिला पड़ी। इस बार उसकी हँसी में रातरानी की महक घुली हुई थी। हँसने से देह में थिरकन हुई तो बालों की एक लंबी लट आँखों के पास से होती हुई होंठों तक चली आई। लट को मुग्ध भाव से देखता हर्ष मुस्कुराया - 'तुम औरतों में बचत की प्रवृत्ति तो होती ही नहीं...!'

'न... ऐसा नहीं कह सकते तुम। उचित जगह पर भरपूर किफायत और बचत भी किया करती हैं हम औरतें। विश्वास करो, तुम्हारे जादुई चिराग पर जो भी खरोचें लगेंगी आज, उन पर जल्द ही बचत की रफू भी लगा दूँगी, ठीक? पर अभी स्टेटस सिंबल...!'

दोनों एस्कलेटर की ओर बढ़ गए।

'जानते हो हर्ष? पड़ोस के चार सौ दस नंबर वाले गुप्ताजी तुमसे जूनियर हैं न? उनकी मिसेज इसी मॉल से खरीदारी कर गई हैं कल। हाथ नचा नचा कर बता रहीं थीं। आज मैं खबर लूँगी उनकी।'

'स्त्रियोचित डाह...!' हर्ष ने चुटकी ली।

'नो...! जस्ट स्टेटस सिंबल!' दोनों की आँखों में दुबके शरारत के नन्हें चूजे पंचम स्वर में चीं चीं कर रहे थे।

पहली मंजिल! मॉल का सर्वाधिक ख्यात और चर्चित शोरूम 'अप्सरा'! दोनों शोरूम के भीतर चले आए। अंदर का माहौल तेज रोशनी में तैरते किसी जहाज जैसा दिख रहा था। चारों ओर बड़ी बड़ी शेल्फें! वस्त्र ही वस्त्र! राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ब्रांड! फैशन एवं डिजाइनों के नवीनतम संग्रह! चरों ओर जीवंत से दिखने वाले डॉल्स एवं पुतले खड़े इन डिजाइनों का प्रदर्शन कर रहे थे। शोरूम का दक्ष सेल्समैन उन्हें विशिष्ट काउंटर पर ले आया। साड़ियाँ, जीन्स-टॉप, पैंट-शर्ट, अधोवस्त्र! रंगों के अद्भुत शेड्स! एक दूसरे को अतिक्रमित करती कसीदाकारी की नवीनतम बानगी! चयन प्रक्रिया दो घंटों तक चली। अंततः चयनित होकर वस्त्र ढेरी से अलग हुए और आकर्षक भड़कीले पैकेटों में बंद होकर आ गए। भुगतान काउंटर पर बिल पेश हुआ। अठारह हजार पाँच सौ! जादुई चिराग पर कुछ खरोंचें लगीं और भुगतान हो गया। संजना के चेहरे पर संतुष्टि की पुखराजी आभा फैल गई।

पैकेटों को चमगादड़ों की तरह हाथों में झुलाए कैप्सूल लिफ्ट से नीचे उतरे ही थे कि संजना के पाँव ठमक गए - 'दीपावली के मौके पर जीन्स-टॉप का एक सेट बुलबुल के लिए भी ले लिया जाय तो कैसा रहे हर्ष? जीजू की ओर से गिफ्ट पाकर तो वह नटखट बौरा ही जाएगी।'

'अरे! वंडरफुल आईडिया यार!' बुलबुल के जिक्र मात्र से ही रोमांचक सनसनी से भर गया। बुलबुल संजना की छोटी बहन थी। शोख और चंचल! रूप और लावण्य में संजना से दो कदम आगे! बारहवीं की छात्रा! शादी की गहमागहमी में परिचय बस औपचारिक भर ही रहा, पर सप्ताह भर बाद जब 'पीठफेरी' पर संजना को लिवाने गया तो संकोचों की बलुई दीवार को ढहते देर नहीं लगीं। तीन दिनों का प्रवास रहा ससुराल में। एक दिन मैथन डैम का प्रोग्राम बना। डैम देख चुकने के बाद तीनों समीप के पार्क में चले आए। अचानक संजना की नजर दूर खड़े आईसक्रीम के ठेले पर पड़ी तो वह उठ कर आईसक्रीम लाने चली गई। बरगद की ओट, रिश्ते की अल्हड़ता और बुलबुल की आँखों से झरती महुआ की मादक गंध! हर्ष स्वयं को रोक नहीं पाया और झटके से आगे बढ़ कर बुलबुल के होंठों पर चुंबन जड़ दिया।

हर्ष की अँगुलियाँ अनायास ही होंठों पर चली गईं। बुलबुल के अधरों का गीलापन अभी भी कुंडली मारे बैठा था वहाँ। सिहरन से लरज कर हर्ष हिनहिनाया - 'जीन्स टॉप के साथ साथ एक साड़ी भी ले लो। अपनी जैसी प्राइस रेंज की... ठीक?' दोनों वापस एस्कलेटर पर सवार होकर ऊपर की ओर उड़ चले।

रमा सिलाई मशीन से उठकर बाहर बरामदे में आ गई। मशीन पर लगातार पाँच घंटों की बैठकी से पीठ और कमर अकड़ गई थी। सुई की ओर लगातार नजरें गड़ाए रखने से आँखें जल रहीं थीं। रात के ग्यारह बज रहे थे। बाहर रात की स्याह चादर पर आधे चाँद की की धूसर चाँदनी झड़ रही थी। अँधेरे के अदृश्य कोनों से झींगुरों का समवेत रुदन सन्नाटे को रहस्यमय बना रहा

चैन नहीं पड़ा तो वापस कोठरी में लौट आई। कोठरी के भीतर बिखरे सरंजाम को देख कर हँसी छूट गई। रफू की हुई पुरानी सिलाई मशीन! पास में महाजनों के यहाँ से रफू के लिए आए कपड़ों की ढेरी! रफू की हुई पुरानी जर्जर टेबल! बर्तन-भांडे, दीवाल और छत, कपडे-लत्ते, खाट-खटोले - सब के सब रफूमय!

रमा ब्याह कर यहाँ आई थी तो उम्र सोलह साल थी। रमेसर जे.के. एल्युमीनियम में लैबर था। जिंदगी की गाड़ी साल भर ठीक ठाक चली। उसके बाद श्रमिक संगठनों एवं प्रबंधन के आपसी मल्लयुद्ध में लहूलुहान होकर एशिया का यह सबसे बड़ा संयंत्र भीष्म पितामह की तरह शर शय्या पर इस कदर पड़ा कि फिर उठ न सका। हजारों श्रमिक बेकारी की अंधी सुरंग में धकेल दिए गए। रमेसर ने काम की तलाश में बहुत हाथ-पाँव मारे पर कहीं भी जुगाड़ नहीं बैठ सका। अंत में वह रिक्शा चलाने लगा। पर दमे का मरीज होने के कारण कितनी सवारियाँ खींच पाता भला? खाने के लाले पड़ने लगे। तब बचपन में सीखा सिलाई और रफूगीरी का शौकिया हुनर काम आया। रमा ने पुरानी सिलाई मशीन का जुगाड़ किया। धैर्य रखते हुए पास के रानीगंज-आसनसोल शहर के व्यापारियों से संपर्क साधा और इस तरह सिलाई के साथ साथ हुक लग जाने से अथवा चूहों के द्वारा कुतरे जाने से क्षत कपड़ों की रफूगीरी के पेशे से जिंदगी की फटी चादर पर रफू लगाने की कवायद शुरू हुई।

फिर हर्ष पेट में आया। तबियत ढीली रहने लगी। डॉक्टरों के पास जाने की औकात कहाँ? देशी टोटकों का रफू लगा देह पर। देखते देखते नवाँ महीना आ गया। फूले पेट के भीतर हर्ष की भरतनाट्यमी कलाबाजियों से मरणासन्न रमा वेदना को दाँत पर दाँत जमा कर निरस्त करने की नाकाम कोशिश करती उसकी अगवानी में पलक पावड़े बिछाए रही। तभी डॉक्टर ने एलान किया - केस सीरियस हो गया है और जच्चा या बच्चा - दोनों में से किसी एक को ही बचाया जा सकता है। रमा की आँखों के आगे अँधेरा छा गया। पर दूसरे ही पल उसने दृढ़ता के साथ डॉक्टर को भगवान की सौगंध दे दी - सिर्फ और सिर्फ बच्चे को बचा लेना हुजूर। मरद के गोद में हमरे प्यार की एगो निशानी तो रह जाएगी जो इस सतरंगी दुनिया को देख सकेगी। डॉक्टर ने हर्ष को जीवनदान दे दिया। रमा कोमा में चली गई। कोमा की यह स्थिति पंद्रह दिनों तक बनी रही। डॉक्टरों ने उसकी जिंदगी की उम्मीद छोड़ दी थी। फिर जैसे चमत्कार हो गया। मौत के संग लंबे संघर्ष के बाद आखिरकार रमा बच ही गई।

उस समय रमा ने तुम्हारे अस्तित्व को दरकिनार करते हुए यदि अपनी जान की परवाह की होती तो हर्ष, तुम कहाँ होते आज?

हर्ष पढ़ने लिखने में औसत था। पढ़ने से जी चुराता। स्कूल के नाम पर घर से निकल जाता और स्कूल न जाकर आवारा लड़कों के संग इधर उधर मटरगश्ती करता रहता। इन सब बातों को लेकर रमेसर अक्सर उसकी पिटाई भी कर देता।

'तेरे भले के लिए ही कह रहे हैं रे...!' रमा उसे प्यार से समझाती - 'पढ़ लिख लेगा तो इज्जत की दो रोटी मिलने लगेगी। नहीं तो अभावों और जलालत की रफू वाली जिंदगी ही जीनी पड़ेगी।'

किसी तरह मैट्रिक पास कर लेने के बाद रमा ने उसे कोलकाता भेज देने का निश्चय कर लिया। पुराने आवारा दोस्तों का साथ छूटेगा तभी पढ़ाई के प्रति गंभीर हो सकेगा।

'पर कोलकाता में कहाँ रहेगा, कहाँ खाएगा? वहाँ का खर्च क्या आसमान से उतरेगा?' रमेसर ने शंका में मुंडी हिलाई तो रमा के चेहरे पर आत्मविश्वास की पुखराजी धूप खिल उठी - 'आसमान से भला कोई चीज आई है जो अब आएगी? खर्च हम पूरा करेंगे। आधा पेट खाकर रह लेंगें। जरूरतों पर और कटौती कर देंगें। चाहे जैसे भी कर के हर्ष को पढ़ाना ही होगा। उसकी जिंदगी सँवार देनी है।'

रमा की जीवटता देख कर रमेसर चुप हो गया। हर्ष को कोलकाता भेज दिया गया। सस्ता सा पी.जी. (पेईंग गेस्ट) होम तलाशते देर न लगी। कॉलेज में एड्मिशन भी हो गया। नए दोस्तों की संगत रंग लाने लगी। पढ़ाई की ओर ध्यान जुटने लगा। रमा निरंतर पैसे भेजती रही। इन पैसों का जुगाड़ किन मुसीबतों से गुजर कर हो रहा है, हर्ष को इस बात से कोई मतलब नहीं था। इस तरह पहले इंटर, फिर बीबीए और अंत में एमबीए!

उस समय रमा ने अभावों से जूझते हुए और सामर्थ्य से बाहर जाकर तुम्हें कोलकाता भेजने का संकल्प नहीं लिया होता तो हर्ष, तुम कहाँ होते आज?

एमबीए की डिग्री का झोली में आ गिरना टर्निंग पॉइंट साबित हुआ हर्ष के लिए। पहले ही प्रयास में टाटा स्टील जैसी ख्यात कंपनी में जॉब! फिर सुंदर और पढ़ी लिखी संजना से ब्याह! कोलकाता में ही पोस्टिंग तथा टाटा आवासीय क्लमेक्स में शानदार फ्लैट! अरसे से दाने दाने को मोहताज किसी वंचित को मानो अथाह संपदा के ढेर पर ही बैठा दिया गया हो। ढेर सारी सुविधाएँ...! ढेर सारा वैभव...! सब कुछ छोटे से आयताकार जादुई चिराग में कैद...! इस चिराग के एकछत्र 'अलादीन' सिर्फ और सिर्फ वे दोनों...!

टाटा स्टील में जॉब लगे तीन साल हो गए। जॉब लगते ही हर्ष ने कहा था - 'नई जगह है मम्मी। सेट होने में हमें ही वक्त लगेगा। सेट होते ही तुम्हें वहाँ बुला लेंगें। इस मनहूस जगह को हमेशा के लिए अलविदा कह देंगें।'

सुनकर अच्छा लगा था। रफूगीरी का काम करते करते तन और मन पर इतने सारे रफू चस्पा हो गए हैं कि घिन आने लगी है। अब वह भी सामान्य जिंदगी जीना चाहती है। जिस दिन भी हर्ष कहेगा, चल देगी। यहाँ कौन सी संपत्ति पड़ी है! सारी गृहस्थी एक छोटी सी गठरी में समा जाएगी।

लेकिन तीन साल गुजर गए। इसी बीच हर्ष कई बार आया यहाँ। दो दिनों के प्रवास का डेढ़ दिन ससुराल में बीतता। फिर बिना कुछ कहे लौट जाता। 'मम्मी, इस बार तुम्हें भी साथ चलना है...' - इस एक पंक्ति को सुनने के लिए तड़प कर रह जाती है वह।

तो क्या अपने साथ ले चलने के लिए हर्ष के आगे हाथ जोड़ते हुए गिड़गिड़ाना होगा? माँ की तन्हाइयों और मुसीबतों का एहसास स्वयमेव ही नहीं होना चाहिए उसे? न...! वह ऐसा नहीं कर सकती। उसके जमीर को यह कतई मंजूर नहीं होगा। सिर्फ एक बार... कम से कम एक बार तो हर्ष को मनुहार करना ही होगा। अगर वह ऐसा नहीं कर सकता तो न करे। वह भी कहीं जाने के लिए मरी नहीं जा रही।

शोरूम में आधे घंटे का वक्त और लगा। जीन्स टॉप के साथ सीक्वेंस वर्क की खूबसूरत साड़ी भी! जादुई चिराग पर एक और गहरी खरोंच! हाथों में झूलते चमगादड़ों के झुंड में एक चमगादड़ और जुड़ गया। लिफ्ट से नीचे उतर कर दोनों शाही अंदाज में चलते हुए मुख्य द्वार तक आए ही थे कि हर्ष एकाएक चौंक पड़ा।

'मम्मी को तो भूल ही गए। उनके लिए साड़ी...?' हर्ष मिमियाया।

'ओह...!' संजना भी ठमक गई।

'एक बार फिर बैक टु अप्सरा...!' हर्ष हँसा और हड़बड़ा कर वापस भीतर जाने के लिए मुड़ा तो संजना ने उसे बाँह से पकड़ कर रोक लिया - 'अब उतर ही गए हैं तो चलो न, बाहर के किसी शोरूम से ले लेंगें।'

'बाहर के शोरूम से...?' हर्ष सकपका गया।

'एनी प्रॉब्लम...?' संजना आँखें मटकाई - 'माँ ही तो है यार, मैडम मिशेल ओबामा जैसी बड़ी तोप तो नहीं कि मॉल की साड़ी न हुई तो शान में गुस्ताखी हो जाएगी। हँह...! वैसे भी उस कस्बाई महिला को क्या फर्क पड़ेगा कि साड़ी कहाँ से खरीदी गई है। बाहर के स्टोर से लेंगें तो सस्ती भी मिलेगी और जादुई चिराग पर रफू भी लग जाएगा।'

'सचमुच, यह तो मैंने सोचा ही नहीं। यू आर रियली जीनियस जेन।' हर्ष संजना के तर्क पर मुग्ध हो उठा - 'पर... पर लेनी प्योर सिल्क ही है यार।'

'प्योर सिल्क...?' संजना चौंक पड़ी - 'प्योर सिल्क के माने जानते भी हो?'

'पिछली बार वहाँ गया था तो दीवाली पर प्योर सिल्क देने का वायदा कर आया था।' हर्ष अपराध-बोध से भर गया।

'ऊफ... तुम भी न...।' संजना बड़बड़ाई - 'इस तरह के उलटे-सीधे वादे करने के पहले थोड़ा सोचना तो चाहिए था।'

'अब कुछ नहीं हो सकता जेन। वादा कर आया हूँ न। नहीं दिए तो मम्मी क्या सोचेगी...'।

'ठीक है। कोई उपाय करते हैं।'

बाईक अलीपुर की ओर दौड़ने लगी। पीछे बैठी संजना ने बायाँ हाथ आगे ले जाकर हर्ष की कमर पर टिका दिया। संजना की साँसों की मखमली खुशबू हर्ष को सनसनी से भरे दे रही थी।

रासबिहारी मेट्रो के पास एक ठीकठाक शोरूम के आगे बाईक रुकी। दोनों भीतर चले आए। उनके हाथों में भरी भरकम भड़कीले पैकेट्स देख कर काउंटर के पीछे बैठे मुखर्जी बाबू मन ही मन चौंके। ऐसे हाई-फाई ग्राहक का उनके साधारण से शोरूम में क्या काम?

'वेलकम मैडम... क्या सेवा करें...?' हड़बड़ा कर खड़े हो गए मुखर्जी बाबू।

'प्योर सिल्क की साड़ी लेनी है। कुछ अच्छी डिजाइनें दिखाइए।'

मुखर्जी बाबू ने सहायक को संकेत दिए। देखते देखते काउंटर पर दसियों साड़ियाँ आ गिरीं। मुखर्जी बाबू उत्साहपूर्वक एक-एक साड़ी खोल कर डिजाइन और रंगों की प्रशंसा में कसीदे पढ़ने लगे। संजना ने साड़ी पर चिपके प्राइस टैग पर नजर डाली। तीन से चार हजार तक की थीं साड़ियाँ। उसने हर्ष की ओर देखा।

'तनिक कम रेंज की दिखाइए दादा।' संजना हिनहिनाई।

'मैडम, इस से कम प्राइस में अच्छा क्वालिटी का प्योर सिल्क नेई आएगा। सिंथेटिक दिखा दें?' मुखर्जी बाबू सोच रहे थे, इतना मालदार आसामी प्राइस देख के हड़क काहे रहा?

'प्योर सिल्क ही लेनी है।' संजना रुखाई से बोली। फिर तमतमाई आँखों से हर्ष की ओर देखा। दोनों अँग्रेजी में वार्तालाप करने लगे।

'तुम्हारी मम्मी का दिमाग सनक गया है। माना कि चालीस-पैंतालीस की ही हैं अभी, हमारे समाज में विधवा स्त्री को ज्यादा कीमती और फैशनेबल साड़ी पहनना वर्जित है। ये बात उन्हें सोचनी चाहिए। मुँह उठाया और प्योर सिल्क माँग लिया, हँह! प्योर सिल्क का दाम भी पता है? प्योर सिल्क पहनने का शौक चढ़ा है!'

हर्ष कहना चाहता था कि हमारे समाज में विधवाओं को सिर्फ रंग-बिरंगे भड़कीले प्रिंट्स पहनने की मनाही है। किसी भी धर्मग्रंथ में उन्हें कीमती साड़ी पहनना वर्जित नहीं और कि मम्मी ने मुँह उठा कर स्वयं प्योर सिल्क नहीं माँगा, बल्कि प्योर सिल्क की बात तो उसने की है। पर संजना के रूप लावण्य और मोहक अदा का सम्मोहन इतना सघन था कि उसकी बोलती बंद हो गई।

'आय एम सॉरी जेन। वायदा कर चूका हूँ न। अब कोई उपाय नहीं।' हर्ष ने भूल स्वीकारते हुए अफसोस जाहिर किया।

उसे अच्छी तरह याद है वह दिन। दोस्तों के संग घूम-फिर कर लौटा तो रात के ग्यारह बज रहे थे। मम्मी बिना खाए उसका इंतजार कर रही थी। दोनों नें साथ भोजन किया। फिर वह मम्मी की गोद में सिर रख कर लेट गया। नीचे मम्मी की गोद की अलौकिक ऊष्मा और ऊपर बालों में उसके ममता भरे हाथों का शीतल स्पर्श! न जाने कैसी जादुई तासीर थी इनमें कि आँखें झपक गईं। वस्तुतः काफी दिनों बाद निश्चिंतता वाली सुकून भरी नींद आई थी। भोर में पाँच बजे अचानक नींद टूटी तो देखा, मम्मी ज्यों कि त्यों बैठी बालों में अँगुलियाँ फिरा रही है।

'अरे! मम्मी तुम सोई नहीं?' हर्ष अकबका कर उठ बैठा।

'तुम्हें सोते हुए देखते देखते रात कब बीत गई, पता ही नहीं चला रे...।' मम्मी के होंठों पर एक दिव्य मुस्कान थिरक रही थी। ऐसी मुस्कान जो सिर्फ उसी औरत के होंठों पर खिल सकती है जिसने मातृत्व का गौरव हासिल कर लिया हो। उन्हीं जादुई क्षणों के दौरान हर्ष के मुँह से निकल गया - 'ओह मम्मी... इस बार दीवाली पर अच्छी सी प्योर सिल्क दूँगा तुम्हें।' सुनकर रमा मुस्कुरा भर दी थी।

हर्ष और जेन के बीच वार्तालाप भले ही अँग्रेजी में हो रहा था और मुखर्जी बाबू को अँग्रेजी की समझ कम थी, फिर भी उन्हें ताड़ते देर नहीं लगी कि बहस साड़ी की कीमत को लेकर ही हो रही है।

'मैडम...', मुखर्जी बाबू ने सिर खुजलाते हुए अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा - 'यदि बुरा न माने तो क्या हम पूछ सकते कि साड़ी किसके लिए ले रहे?' इसके पहले कि इस अटपटे प्रश्न पर दोनों हत्थे से उखड़ जाते, मुखर्जी बाबू ने त्वरित गति से अपने कहे का स्पष्टीकरण भी पेश कर दिया - 'न... न... मैडम, अन्यथा न लें। सिरिफ इसलिए पूछा कि तब हम उसके अनुकूल दूसरा किफायती ऑप्शन सूझा सकता।'

किफायती ऑप्शन की बात पर दोनों का आक्रोश स्खलित हो गया। संजना ने हिचकिचाते हुए मन की गाँठ खोल दी - 'साहब की विडो (विधवा) मदर के लिए...।' मुखर्जी बाबू के जेहन में पलक झपकते पूरा माजरा बेपर्द हो गया। मैडम ने साहब की माँ को 'मम्मी' नहीं कहा, 'सासू माँ' भी नहीं कहा। बल्कि 'साहब की विडो मदर' का प्रयोग किया। एक दम ग्लोबल भाषा! साहब उल्लू का पट्ठा भी कार्टून का माफिक खड़ा खड़ा दुम हिलाता हीं हीं करता रहा। खूब!

'ऐसा बोलिए न मैडम...,' - उन्होंने सहायक को कुछ अबूझ से संकेत दिए तो थोड़ी देर में ही काउंटर पर प्योर सिल्क के नए बंडल दस्ती बम की तरह आ गिरे। एक से एक खूबसूरत प्रिंट! एक से एक लुभावने कलर्स!

'वैसे तो ये साड़ियाँ भी चार हजार से कम की नेई मैडम, पर हम इन्हें सिरिफ आठ सौ में सेल कर रहा। लोडिंग-अनलोडिंग के समय हूक लग जाने से या इंदूर (चूहा) काट देने से साड़ी में छोटा-छोटा छेद हो जाता। हमारा ट्रेंड कारीगर 'प्लास्टिक' सर्जरी कर के उस नुख्स को ऐसा माफिक ठीक करता कि साड़ी एकदोम नया हो उठता है। सरसरी नजर से देखने पर चालाक से चालाक मानुष भी नुख्स को नेई पकड़ पायेगा, ये हमरा चैलेन्ज...!'

'प्लास्टिक सर्जरी... माने रफू...?' संजना एक पल के लिए हकलाई।

'नो... नो... मैडम! रफू नेई, प्लास्टिक सर्जरी! जैसे चेहरा का प्लास्टिक सर्जरी होता , वैसा माफिक ही साड़ी का भी प्लास्टिक सर्जरी! आप खुद देखिए न।' सचमुच बिलकुल नई और बेदाग साड़ियाँ। नुख्स बिलकुल ही समझ में नहीं आ रहे थे। यहाँ वहाँ छोटे छोटे डिजायनर तारे साड़ियों की खूबसूरती को बढ़ा रहे थे। दोनों की बाँछें खिल गईं। आँखों में यूरेका यूरेका के भाव सिमट आए। मन तनाव से मुक्त हो गया। आनन-फानन ढेर से एक साड़ी चयनित हुई और पैक होकर आ गई। यह नया पैकेट मॉल के पैकेटों के बीच ऐसा लग रहा था मानो ऑस्ट्रेलियाई खिलाडियों के बीच क्रिस गेल आ खड़ा हुआ हो।

'मैंने कहा था न, सही मौका आते ही जादुई चिराग पर रफू लगा दूँगी। देख लो, तुम्हारा वादा भी निभ गया और चिराग पर पूरे तीन हजार का रफू भी लग गया। नहीं...?' संजना खिलखिलाई तो बालों की महीन लट आँखों के सामने से होती हुई होंठों तक चली आयी। 'यू आर रियली जीनियस जेन...।' दोनों के चेहरे गोभी के फूल की तरह खिले हुए थे।

हर्ष और संजना दिवाली के तीन दिन पहले ही यहाँ आ गए।

'मम्मी... ये तुम्हारे लिए। दिवाली गिफ्ट! मैंने कहा था न, इस बार सुंदर सी प्योर सिल्क दूँगा...।' साड़ी का पैकेट रमा की ओर बढ़ाते हुए हर्ष खुशी से दिपदिपा रहा था। संजना ने साड़ी को मॉल के भड़कीले पैकेट में दाल दिया था। रमा ने लरजते हाथों से पैकेट में से साड़ी निकाली। लगा जैसे हाथों में मुलायम फर वाला खरगोश ही आ दुबका हो।

'इसे दिवाली के दिन पहनिएगा मम्मी। आकाश से उतरी हुई कोई परी ही लगेंगी...।' संजना ने चुटकी ली।

'इतनी महँगी प्योर सिल्क की क्या जरूरत थी रे?' रमा के उलाहने में गर्वोन्मत्त संतुष्टि की खनक घुली थी। बेटे को वादा याद रहा...। शाम को हर्ष संजना को लेकर ससुराल चला गया - 'पूजा की सारी तैयारी करके रखना मम्मी। हम दिवाली वाले दिन सुबह लौट आएँगे।'

पाँच दिनों के प्रवास का साढ़े चार दिन ससुराल में! उल्लास और त्यौहार के इस खुशनुमा माहौल में भी घर में साँय साँय करती श्मशानी खामोशी! रमा ने खुद को संयत कर लिया। साड़ी लिए मशीन के पास वाली कुर्सी पर आ बैठी। गुलाबी पृष्ठभूमि पर छोटे छोटे फूल-पत्तियों का जाल! अचानक जेहन में एक खटका सलीब की तरह टँग गया। अरे... बिलकुल ऐसे ही कलर और प्रिंट वाली प्योर सिल्क पिछले महीने ही उसके हाथों से गुजरी है। हूबहू वही शेड! हूबहू वही फूल-पत्तियों के छापे! बिजली की गति से हाथ साड़ी की तहों को खोलने में लग गए। चौकन्नी और खोजी निगाहें केचुओं की तरह साड़ी के 'रन वे' पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक रेंगने लगीं। बिलकुल... उसके हुनर से उपजे यत्र तत्र बिखरे नन्हें तारे! साड़ी के छोर पर कोने में लाल धागे की नन्हीं बिंदी... उसकी पहचान का लोगो! शक की कोई गुंजाइश ही नहीं।

रमा का कलेजा धक से रह गया। आँखें फटी की फटी रह गईं। उसे याद आया, भिखमचंद रामरतन साड़ी के थोक व्यापारी हैं और उनके यहाँ से माल दूर दूर के शहरों तक सप्लाई होता है। उन्हीं के यहाँ से यह साड़ी आई थी रफू के लिए।

उसकी आँखें छलछला आईं। अपमान बोध के तनाव से सिर भारी हो गया। आसमान से उतरी हुई परी...! क्या सचमुच...!

इस सन्निपाती आलम की स्थिति कुछ ही पलों तक रही। फिर रमा उठ बैठी। न... हर्ष को इस बात की जरा भी भनक नहीं लगनी चाहिए कि उसे सब पता चल गया है। कलेजे का टुकड़ा है वह। उसकी खुशी में ही मेरी खुशी है।

उसने तय कर लिया कि दिवाली के दिन यही साड़ी पहनेगी वह...!


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हिंदी समय में महावीर राजी की रचनाएँ